मित्रों यथोचित अभिवादन
कोरोना विषाणु (Corona virus) जनित वैश्विक महामारी संकट की इस घड़ी में हमें परिवार के साथ पृथकवास में रहने के लिये प्रकृति ने पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराया है। जो परिवार के साथ नहीं हैं, उन्हें भी यह अवसर है। इस समय अपने कर्त्तव्यों के पालन हेतु जो लोग अपने प्राण हथेली पर रखकर सेवारत हैं, आवागमन कर रहे हैं; ईश्वर उन्हें ऐसा करने की शक्ति दें और रक्षा करें। जो लोग और जिन लोगों के परिवार इस महापदा में पीड़ित व शिकार हुये हैं; उन्हें सहनशक्ति मिलने के साथ -साथ कष्टों से मुक्ति मिले।
इस महामारी से बचाव हेतु सोशल डिस्टेंसिंग (Social distancing ) की चौतरफा अपील हो रही है। मेरा मानना है कि, यह शब्द आज के समय की विभीषिका में अपने सम्पूर्ण अर्थ के साथ उपस्थित नहीं है। सोशल डिस्टेंसिंग का शाब्दिक अर्थ 'सामाजिक दूरी' होता है। क्या ऐसा करके हम वास्तव में इस विषाणु के संक्रमण प्रवाह को रोक पाएंगे और आज के सोशल मीडिया के जमाने में क्या हम सोशल डिस्टेंसिंग कर पाएंगे? नहीं। और मेरा मत है कि, न ही हमें करना चाहिए। क्योंकि समूह में बल होता है किसी भी आपदा से बचने, भिड़ने और जीतने का। विभिन्न समूह ही तो हैं, जो कंधे से कन्धा मिलाकर इस महामारी से जूझने और पार पाने में अपना यथाशक्ति योगदान दे रहे हैं। चाहे वह चिकित्सकों का समूह हो, नर्सों का हो, पुलिस का हो, सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं के अधिकारियों और कर्मचारियों का समूह हो या अति आवश्यक पदार्थों के आपूर्ति हेतु व्यक्तियों, दुकानदारों और ठेला लगाने वालों का समूह। ऐसे समय में उपलब्ध सीमित साधनों और शासकीय अनुमति को ध्यान में रखकर सहयोग कर सकते हैं। अपने आस-पड़ोस के लोगों का भी ध्यान रखना है कि, कहीं ऐसा न हो कि हमारे सक्षम होते हुए और पास में रहते कोई परिवार भूखा न रह जाए। मेरी जानकारी में आया है कि, इस सोशल डिस्टेंसिंग के चक्कर में एक परिवार जिसके यहाँ एक सदस्य स्वर्गवासी हो गया था, दो दिन से भूखा रहा। जानकारी में होते हुए भी, पास-पड़ोस के लोगों ने सुधि नहीं ली। सामाजिक दूरी बनाये रखी।
सोशल डिस्टेंसिंग नहीं, तो फिर हमें करना क्या चाहिए?
मेरी सहज बुद्धि में इसके लिए जो उपयुक्त शब्द आता है वो है - 'फिजिकल डिस्टेंसिंग (Physical Distancing )' तात्पर्य 'दैहिक दूरी' । ये दैहिक / शारीरिक दूरी उतनी रखी जाय जितनी समय- समय पर शासन द्वारा बताया जाय और चिकित्सकीय सलाह हो। साथ ही हर उन निर्देशों का सख्ती से पालन किया जाय, जो समय - समय पर सरकार द्वारा इस महामारी की रोकथाम के लिए दिये जा रहे हैं। दैहिक दूरी बनाये रखने के साथ- साथ समय निकाल कर पृथकवास किया जाय।
मित्रों, इस समय विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न उपाय बताए जा रहे हैं कि क्या किया जाए क्या न। यह समूह तो मनोवैज्ञानिकों का है। मेरी दृष्टि में अपने मन का अनुसन्धान करने की / जानने समझने की कोशिश करने वाला हर व्यक्ति मनोवैज्ञानिक ही है। इनकी बात ही निराली है। सब एक से एक प्रतिभा संपन्न हैं। परंतु हमें भी अपना आत्मबल बनाये रखने के लिए कुछ करते रहना चाहिए, जिससे कि औरों का भी संबल बन सकें। मेरे मन में कुछ विचार आये हैं, जिन्हें मैं साझा करना चाहता हूं। यदि उचित लगे तो किये जा सकते हैं।
हम सभी का व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न होता है। सामान्यतया कोई बहिर्मुखी, कोई अंतर्मुखी तो कोई इन दोनों के मिले जुले व्यक्तित्व के गुणों को धारण करने वाला होता है। मेरा यह मानना है कि, यह समय अपने अंतर्मन की यात्रा करने का है। आत्मावलोकन करने का है। अंतर्मुखी के बहिर्मुखी होने और बहिर्मुखी के अंतर्मुखी होने का है। ऐसा करने पर स्वयं के साथ तादात्म्य स्थापित हो सकेगा। हम अपने आपको बेहतर समझ पायेंगे।
क्या अपने आपको जान लेना, जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव नहीं हो सकता ?
क्या ऐसा करके हम सिग्मंड फ्रायड के बताये गये सबकांशस और अनकांशस की यात्रा करने की ओर एक कदम नहीं बढ़ा सकते ? या फिर कार्ल जुंग के बताये गए कलेक्टिव अनकांशस की तरफ उन्मुख नहीं हो सकते ?
या फिर वेदों में बताये गये आत्मतत्व - मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, आत्मा, परमात्मा को समझने की यात्रा पर जाने की अभिलाषा और प्रयत्न नहीं कर सकते ? निश्चित ही कर सकते हैं। मुझे लगता है कि, ये भाषा और विचार कुछ गंभीर और गरिष्ठ हो गये हैं। अपनी समझ से इन्हें कुछ ग्राह्य बनाने की कोशिश करता हूं। कुछ छोटे- छोटे व्यवहारिक उपाय निम्न हो सकते हैं:
१. एक नियमित दिनचर्या बनाकर उसका पालन (activities of daily living)
२. योगाभ्यास (पतंजलि अष्टांग योग: यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान, समाधि)
३. किसी भी विधि द्वारा शांत और शिथिल होने का प्रयास
४. डायरी लेखन
५. जर्नल राइटिंग (अपने विचारों और भावनाओं को बिना सेंसर किये लिखना और फ़ाड़कर फेंक देना)
६. अपनी-अपनी रुचियों को समय देना।
७. जीवन के अनुभवों को लिपिबद्ध करना (bibliography), साझा करना, लिखकर या बोलकर बताना
८. पुरानी यादों को ताजा करना (Reminiscence therapy): उदाहरण के रूप में ४० पार के लोग तो दूरदर्शन पर पुनः प्रसारित होने वाले रामायण और महाभारत को देखकर अपने किशोरावस्था को याद कर सकते हैं, जी सकते हैं ।
९. और अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात, धर्म के १० लक्षणों के बारे में बताया गया है। ये लक्षण हैं: धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥" (मनुस्मृति ६.९१) अर्थात् धैर्य, क्षमा, दम (अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रियनिग्रह (अपनी दसों इन्द्रियों को वश में रखना), धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या, सत्य, अक्रोध।हम अपना आत्मनिरीक्षण कर देखें कि हम इनमें से कितनों को धारण कर सके हैं। इनमें से जिन लक्षणों को हम अब तक धारण न कर सके हों उन्हे अपने में धारण करने की कोशिश कर सकते हैं।
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बताये गये हैं। इच्छुक व्यक्ति उनका भी अध्ययन कर सकते हैं।
सोशल मीडिया पर इतना लंबा लेख कोई धैर्यवान ही पढ़ सकता है। हम विभिन्न लोगों द्वारा अग्रेसित किये गये विचारों को आगे बढ़ाते हैं। उनका आनंद लेते हैं। क्या हम कुछ रचनात्मक नहीं कर सकते? करके उन्हें अपने मित्रों, परिचितों, परिवार के उन सदस्यों को जो हमसे दूर हैं, या अन्य सोशल समूहों में भेजें। जैसे कोई गाना गा सकता है तो कोई कविता लिख सकता है, पेंटिंग बना सकता है, डांस कर सकता है, बागवानी कर सकता है, कुकिंग कर सकता है इत्यादि। ऐसा कुछ भी जो स्वयं किया जाय। उसे पोस्ट कर सकते हैं। जीवन के कुछ खट्टे मीठे पलों को सुन सकते हैं, सुना सकते हैं, देख सकते हैं और बाँट सकते हैं। मित्रों, वास्तविकता चाहिए, बनावट नहीं, नकल नहीं, बस जो कर सकते हैं वो स्वयं करें। उस पहल को शेयर करें। इस पल में जियें।
वस्तुत: कोरोना विषाणु जनित वैश्विक महा आपदा ने हमें इंद्रिय निग्रह के लिए बलात् विवश कर दिया है। संदेश साफ है कि जग नश्वर है। अतः भौतिकवाद से अध्यात्मवाद की ओर रुख करने का समय है। इस समय का सदुपयोग हम अपने उत्थान में कर सकते हैं। हो सकता है कि इसी में विश्व कल्याण निहित हो।