Monday, March 30, 2020

सोशल डिस्टेंसिंग या 'फिजिकल डिस्टेंसिंग' और पृथकवास

मित्रों यथोचित अभिवादन🙏

कोरोना विषाणु (Corona virus) जनित वैश्विक महामारी संकट की इस घड़ी में हमें परिवार के साथ पृथकवास  में रहने के लिये प्रकृति ने पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराया है।  जो परिवार के साथ नहीं हैं, उन्हें भी यह अवसर है।  इस समय अपने कर्त्तव्यों के पालन हेतु जो लोग अपने प्राण हथेली पर रखकर सेवारत हैं, आवागमन कर रहे हैं;  ईश्वर उन्हें ऐसा करने की शक्ति दें और रक्षा करें।  जो लोग और जिन लोगों के परिवार इस महापदा में पीड़ित व शिकार हुये हैं; उन्हें सहनशक्ति मिलने के साथ -साथ कष्टों से मुक्ति मिले। 

इस महामारी से बचाव हेतु सोशल डिस्टेंसिंग (Social distancing ) की चौतरफा अपील हो रही है।  मेरा मानना है कि, यह शब्द आज के समय की विभीषिका में अपने सम्पूर्ण अर्थ के साथ उपस्थित नहीं है।  सोशल डिस्टेंसिंग का शाब्दिक अर्थ 'सामाजिक दूरी' होता है।  क्या ऐसा करके हम वास्तव में इस विषाणु के संक्रमण प्रवाह को रोक पाएंगे और आज  के सोशल मीडिया के जमाने में क्या हम सोशल डिस्टेंसिंग कर पाएंगे?  नहीं।  और मेरा मत है कि, न ही हमें करना चाहिए।  क्योंकि समूह में बल होता है किसी भी आपदा से बचने, भिड़ने और जीतने का।  विभिन्न समूह ही तो हैं, जो कंधे से कन्धा मिलाकर इस महामारी से जूझने और पार पाने में अपना यथाशक्ति योगदान दे रहे हैं।  चाहे वह चिकित्सकों का समूह हो, नर्सों का हो, पुलिस का हो, सरकारी-गैरसरकारी संस्थाओं के अधिकारियों और कर्मचारियों  का समूह  हो या अति आवश्यक पदार्थों के आपूर्ति हेतु व्यक्तियों, दुकानदारों और ठेला लगाने वालों का समूह।  ऐसे समय में उपलब्ध सीमित साधनों और शासकीय अनुमति को ध्यान में रखकर सहयोग कर सकते हैं।  अपने आस-पड़ोस के लोगों का भी ध्यान रखना है कि, कहीं ऐसा न हो कि  हमारे सक्षम होते हुए और पास में रहते कोई परिवार भूखा न रह जाए।  मेरी जानकारी में आया है  कि, इस सोशल डिस्टेंसिंग के चक्कर में एक परिवार जिसके यहाँ एक सदस्य  स्वर्गवासी हो गया था, दो दिन से भूखा रहा। जानकारी में होते हुए भी, पास-पड़ोस के लोगों ने सुधि नहीं ली।  सामाजिक दूरी बनाये रखी।  

सोशल डिस्टेंसिंग नहीं, तो फिर हमें करना क्या चाहिए? 

मेरी सहज बुद्धि में इसके लिए जो उपयुक्त शब्द आता है वो है - 'फिजिकल डिस्टेंसिंग (Physical Distancing )' तात्पर्य  'दैहिक दूरी' ।  ये दैहिक / शारीरिक दूरी उतनी रखी जाय  जितनी समय- समय पर शासन द्वारा बताया जाय और चिकित्सकीय सलाह हो। साथ ही हर उन निर्देशों का सख्ती से पालन किया जाय, जो समय - समय पर सरकार द्वारा इस महामारी की रोकथाम के लिए दिये जा रहे हैं।  दैहिक दूरी बनाये रखने के साथ- साथ समय निकाल कर पृथकवास किया जाय।       

मित्रों, इस समय विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न उपाय बताए जा रहे हैं कि क्या किया जाए क्या न।  यह समूह तो मनोवैज्ञानिकों का है।  मेरी दृष्टि में अपने मन का अनुसन्धान करने की / जानने समझने की कोशिश करने वाला हर व्यक्ति मनोवैज्ञानिक ही है।  इनकी बात ही निराली है।  सब एक से एक प्रतिभा संपन्न हैं।  परंतु हमें भी अपना आत्मबल बनाये रखने के लिए कुछ करते रहना चाहिए, जिससे कि औरों का भी संबल बन सकें।  मेरे मन में कुछ विचार आये हैं, जिन्हें मैं साझा करना चाहता हूं।  यदि उचित लगे तो किये जा सकते हैं। 

हम सभी का व्यक्तित्व भिन्न-भिन्न होता है। सामान्यतया कोई बहिर्मुखी, कोई अंतर्मुखी तो कोई इन दोनों के मिले जुले व्यक्तित्व के गुणों को धारण करने वाला होता है।  मेरा यह मानना है कि, यह समय अपने अंतर्मन की यात्रा करने का है।  आत्मावलोकन करने का है। अंतर्मुखी के बहिर्मुखी होने और बहिर्मुखी के अंतर्मुखी होने का है।  ऐसा करने पर स्वयं के साथ तादात्म्य स्थापित हो सकेगा।  हम अपने आपको बेहतर समझ पायेंगे। 

क्या अपने आपको जान लेना, जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव नहीं हो सकता ?  
क्या ऐसा करके हम सिग्मंड फ्रायड के बताये गये सबकांशस और अनकांशस की यात्रा करने की ओर एक कदम नहीं बढ़ा सकते ? या फिर कार्ल जुंग के बताये गए कलेक्टिव अनकांशस की तरफ उन्मुख नहीं हो सकते ?  
या फिर वेदों में बताये गये आत्मतत्व - मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार, आत्मा, परमात्मा को समझने की यात्रा पर जाने की अभिलाषा और प्रयत्न नहीं कर सकते ?  निश्चित ही कर सकते हैं।  मुझे लगता है कि, ये भाषा और विचार कुछ गंभीर और गरिष्ठ हो गये हैं। अपनी समझ से इन्हें कुछ ग्राह्य बनाने की कोशिश करता हूं। कुछ छोटे- छोटे व्यवहारिक उपाय निम्न हो सकते हैं:

१. एक नियमित दिनचर्या बनाकर उसका पालन (activities of daily living)

२. योगाभ्यास (पतंजलि अष्टांग योग: यम, नियम,आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान, समाधि)

३. किसी भी विधि द्वारा शांत और शिथिल होने का प्रयास

४. डायरी लेखन

५. जर्नल राइटिंग (अपने विचारों और भावनाओं को बिना सेंसर किये लिखना और फ़ाड़कर फेंक देना)

६. अपनी-अपनी रुचियों को समय देना।

७. जीवन के अनुभवों को लिपिबद्ध करना (bibliography), साझा करना, लिखकर या बोलकर बताना 

८. पुरानी यादों को ताजा करना (Reminiscence therapy): उदाहरण के रूप में ४० पार के लोग तो दूरदर्शन पर पुनः प्रसारित होने वाले रामायण और महाभारत को देखकर अपने किशोरावस्था को याद कर सकते हैं, जी सकते हैं ।

९. और अंत में सबसे महत्वपूर्ण बात, धर्म के १० लक्षणों के बारे में बताया गया है  ये लक्षण हैं: धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ॥" (मनुस्‍मृति ६.९१) अर्थात् धैर्य, क्षमा, दम (अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रियनिग्रह (अपनी दसों इन्द्रियों को वश में रखना), धी (सत्कर्मों से बुद्धि  को बढ़ाना), विद्या, सत्य, अक्रोध।हम अपना आत्मनिरीक्षण कर देखें कि हम इनमें से कितनों को धारण कर सके हैं।  इनमें से जिन लक्षणों को हम अब तक धारण न कर सके हों उन्हे अपने में धारण करने की कोशिश कर सकते हैं।

श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में सनातन धर्म के तीस लक्षण बताये गये हैं।  इच्छुक व्यक्ति उनका भी अध्ययन कर सकते हैं  

सोशल मीडिया पर इतना लंबा लेख कोई धैर्यवान ही पढ़ सकता है।  हम विभिन्न लोगों द्वारा अग्रेसित किये गये विचारों को आगे बढ़ाते हैं।  उनका आनंद लेते हैं।  क्या हम कुछ रचनात्मक नहीं कर सकते?  करके उन्हें अपने मित्रों, परिचितों, परिवार के उन सदस्यों को जो हमसे दूर हैं, या अन्य सोशल समूहों में भेजें। जैसे कोई गाना गा सकता है तो कोई कविता लिख सकता है, पेंटिंग बना सकता है, डांस कर सकता है, बागवानी कर सकता है, कुकिंग कर सकता है इत्यादि।  ऐसा कुछ भी जो स्वयं किया जाय।  उसे पोस्ट कर सकते हैं। जीवन के कुछ खट्टे मीठे पलों को सुन सकते हैं, सुना सकते हैं, देख सकते हैं और बाँट सकते हैं।  मित्रों, वास्तविकता चाहिए, बनावट नहीं, नकल नहीं, बस जो कर सकते हैं वो स्वयं करें।  उस पहल को शेयर करें। इस पल में जियें।

वस्तुत: कोरोना विषाणु जनित वैश्विक महा आपदा ने हमें इंद्रिय निग्रह के लिए बलात् विवश कर दिया है।  संदेश साफ है कि जग नश्वर है।  अतः भौतिकवाद से अध्यात्मवाद की ओर रुख करने का समय है।  इस समय का सदुपयोग हम अपने उत्थान में कर सकते हैं।  हो सकता है कि इसी में विश्व कल्याण निहित हो।

Friday, September 6, 2019

ज्येष्ठ भ्राता श्री राजेश त्रिपाठी जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कृष्ण पक्ष, भाद्रपद, विक्रम सम्वत 2076 तद्नुसार दिनांक 23 अगस्त 2019 की रात्रि 3.00 बजे के आसपास जब भारतवर्ष श्रीकृष्ण के जन्मोत्सव प्रसाद ग्रहण के पश्चात निद्रामग्न हुआ ही होगा, मेरे ज्येष्ठ भ्राता श्री राजेश त्रिपाठी जी चिरनिद्रा में लीन हो गये।  मानो उन्हें प्रतीक्षा थी कि श्रीकृष्ण जन्म लेने के पश्चात उनका कष्ट हर लेंगे।  वे कई महीनों से अस्वस्थ चल रहे थे।  उनकी चिकित्सा पहले बस्ती फिर किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय में हुई और बाद में उन्हें संजय गांधी स्नातकोत्तर आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ रेफर कर दिया गया था। 

मेरे ज्येष्ठ भ्राता स्वर्गीय श्री राजेश त्रिपाठी जी की जन्म तिथि जो हाईस्कूल के प्रमाण पत्र पर अंकित है वो 15/04/1966 है।  उनका देहांत विक्रम संवत 2076 के भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) तद्नुसार दिनांक 23/08/2019 को लगभग 53 वर्ष की आयु में हुआ।  वे अपने पीछे तीन पुत्र (रमेंद्र त्रिपाठी, राजेंद्र त्रिपाठी, माधवेंद्र त्रिपाठी), एक पुत्री (राजलक्ष्मी त्रिपाठी), पत्नी (श्रीमती उर्मिला त्रिपाठी), माँ-पिता (श्रीमती पार्वती देवी-श्री राम राज त्रिपाठी), भाई-भयहु (राकेश कुमार त्रिपाठी-श्रीमती सुषमा त्रिपाठी), दो बहनें (श्रीमती राधा रानी व श्रीमती सुनीता पांडेय), एक भतीजा (देव त्रिपाठी) और एक भतीजी (प्रियांशी त्रिपाठी) के साथ-साथ वृहद् नाते-रिश्तेदारों और मित्रों का समूह छोड़ गये हैं।  इसके १२ वर्षों पूर्व महाशिवरात्रि को मझली दीदी श्रीमती अनीता त्रिपाठी जो भैया से छोटी थीं का स्वर्गवास हो चुका था।

शव का दाह संस्कार बैकुण्ठ धाम अयोध्या में 24 अगस्त 2019 को उनके ज्येष्ठ पुत्र रमेंद्र ने बंधु-बांधवो, हित-मित्रों और नाते- रिश्तेदारों की उपस्थिति में किया। दशगात्र एक सितंबर, ब्रह्भोज 3 सितंबर और बरसी 5 सितंबर 2019 को आवास विकास कालोनी, बस्ती स्थित आवास से संपन्न हुआ।  उपस्थित अधिकांश लोगों ने उनके बारे मे कहा, "संत आदमी थे"।

भैया मुझसे 10 वर्षों से भी अधिक बड़े थे।  मेरे जीवन को संवारने मे उनका बड़ा योगदान रहा। 

बड़ा भाई अपने छोटे भाई या पिता अपने पुत्र में खेल-खेल में आत्मविश्वास कैसे जगा देता है, उसका अनुभव मैंने भैया के साथ पाया। खेल-खेल में मैं उन्हें पटक देता हूँ, ऐसा मुझे गुमान था।  और इस गुमान मे मैं कभी अपने सहपाठियों और हम उम्र मित्रों से न दबा, न डरा, तनकर खड़ा हुआ और जीता भी।  मैं सोचता था कि, जब मैं अपने भैया को पटक देता हूँ तो ये किस खेत की मूली हैं। वे चाहे अपने विद्यालय के हों या किसी और।  ये बात और है कि, अपने से जबर लड़के से कभी पटखनी भी खायी, क्योंकि हर कोई बड़ा भाई नहीं होता जो जानबूझकर हार जाय।

जब मैं छोटा था तो पढ़ने के लिए प्रातःकाल ही जगा देते थे।  पढ़ते-पढ़ते कुछ देर के बाद पुनः नींद आ जाती तो सो जाता, फिर जगाते और मारने का भय दिखाते तो माँ के पास भाग जाता और शिकायत करता। माँ उन्हें डाँट देती।  मैं बच जाता पर उन्होंने हर कोशिश की कि मैं अच्छे से पढूँ।  लखनऊ की तहसील मलिहाबाद में रहीमाबाद फार्म के पास एक स्कूल था, उसमें पढ़ाने जाया करते थे।  हम रहीमाबाद कस्बे के विद्यालय में पढ़ते थे।  एक दिन बारिश की वजह से हम (मैं और सुनीता बहन) वहाँ न जाकर उनके स्कूल में चले गये।  इन्होंने हम दोनों को अपनी कक्षा में बैठाया और पढ़ाने लगे।  कक्षा कार्य कराया और गलत हो जाने पर उतना ही दंड दिया जितना कि और बच्चों को।  भाई-बहन होने पर भी कोई छूट नहीं दी।  उस समय तो बहुत बुरा लगा पर वयस्क होने पर ज्ञात हुआ कि, सबको समान भाव से देखना और व्यवहार करने का उनका ये विशेष गुण था।

पिताजी के विरोध के बाद भी कक्षा आठ मे पढ़ने के लिये उन्होंने मेरा प्रवेश सरस्वती विद्या मंदिर, रामबाग, बस्ती मे कराया।  ये उस समय बस्ती के श्रेष्ठ विद्यालयों में से एक था।  वहाँ का शुल्क अधिक था और परिवार के सदस्य अधिक।  पिता जी का कहना था कि कम शुल्क वाले विद्यालय में भी नाम लिखाया जा सकता है।  पर भैया नहीं माने।  मेरे जीवन पर उस एक वर्ष के अध्ययन की अमिट छाप पड़ी। सच्चे अर्थों में मैं विद्यार्थी वहीं बना और जीवन मे सफल होने के मार्ग प्रशस्त हुये।  मेरे विवाह हेतु भी वही अड़े थे, कि होगा तो वहीं होगा जहाँ आज मेरी ससुराल है।  मेरे लिये जो भी बात उन्हें सही और उचित लगी उसके लिये वे अड़ गये और बात मनवा कर छोड़ी।  मैं जब बाहर (बनारस, राँची) से लौटकर घर आता तो मुझे साईकिल पर बैठा लेते और कहते कि एक मित्र से मिलाकर लाता हूँ।  मेरे मना करने पर भी नहीं मानते।  और ले जाते भदेश्वर नाथ भगवान शंकर के मन्दिर।  वहाँ दर्शन करवाते, जल और प्रसाद चढ़वाते।  बीच रास्ते में एक दो मित्रों से भी मुलाकात हो जाती पर उनका लक्ष्य भदेश्वर नाथ जी ही होते। सावन, नवरात्रों और गुप्त नवरात्रों मे भी व्रत रहते और अनुष्ठान करते।  ऐसे भक्त थे।  सीधे सरल स्वभाव वाले थे कि हर कोई अपना उल्लू सीधा कर ले।  इन सबके साथ साथ निस्पृह भी थे।  जो सही लगे वो अपना कार्य करना है, भले ही कोई नाराज हो जाय।  माँ पिता जी की बातों का कभी पलट कर जबाब नहीं दिया।  सिर झुका कर सारी बातें सुन लेते।  किसी और के कार्यों से कोई खास लेना देना नहीं।

युवावस्था में लहसुन, प्याज नहीं खाते थे पर लोग चुपके से मसाले में पीसकर मिला देते।  भोजन की प्रशंसा करते तो लोग मन ही मन मुसकराते।

जिस लखनऊ में रहता हूँ और जहाँ आज मेरी आजीविका है, यहाँ प्रथम बार भैया की ही उंगली पकड़ कर आया था।  वे इतना तेज चलते थे कि मैं उनकी उंगली पकड़ दौड़ता था।  मुझे कुत्ते ने काटा था और वे मुझे बलरामपुर चिकित्सालय में सूई लगवाने लाये थे।  मान्यता थी कि कुकरैल नदी में नहाने से कुत्ते का विष उतर जाता है।  वे लेकर गये तो देखा कि ये तो नदी नहीं, गंदा नाला है।  नहाने से मना कर दिया।  हम दोनों ने बलरामपुर अस्पताल में रात बिताई क्योंकि सुई उपलब्ध नहीं थी और अगले दिन भी उपलब्ध न हो सकी।  हमने श्रीकृष्ण बलराम पिक्चर देखी और सायंकाल रहीमाबाद लौट गये।  उसके पश्चात कुत्ते के काटे की चिकित्सा झाड़फूक से करायी गयी थी।  भैया के साथ की मेरे मानस पटल पर अनगिनत घटनाएं, बातें अंकित हैं सबका वर्णन यहाँ संभव नहीं।

भैया की वाक्चातुर्यता, मिलन सारिता, भोलापन, फक्कड़पन, जीवंतता, आस्था, विश्वास मैने जितनी निकटता से महसूस की हैं शायद और लोग नहीं कर पाये।  जीवन को मापने के सबके अलग अलग मापदंड होते हैं, हो सकता है कि वे उन पर खरे न उतर पाये हों।  लेकिन उनके विशेष गुणों के कारण माँ पिता जी को हमेशा उन पर गर्व रहा।  भले ही वे इसे उन्हें प्रेषित न कर पाये हों पर समय -समय पर मुझसे कहा अवश्य है।

कहा जाता है कि बड़ा भाई पिता तुल्य होता है।  मेरे लिये भैया पिता तुल्य रहे।  आप दानी थे।  आपने अपने सामर्थ्य से बढ़कर दान दिया है, मैं इसका साक्षी और सहभागी दोनों रहा हूँ।  भैया, जाने अनजाने जो अपराध आपके प्रति हो गये हों उनके लिये हमें क्षमादान देना।
आप हमारी यादों मे रहेंगे।

ईश्वर आपकी आत्मा को शांति प्रदान कर अपने श्री चरणों में स्थान दें।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय। 
ॐ शांति शांति शांतिः।

Thursday, January 3, 2019

मित्रों, ताकि सनद रहे

मित्रों, ताकि सनद रहे
31 दिसंबर 2018 की शाम विद्या मंदिर के 1989 सत्र के 6 मित्रों के मिलन की हास परिहास के साथ जितना याद रह सका उसकी रिपोर्टिंग ताकि सनद रहे। कृपया बात को दिल पर न लें, किसी की भी भावना आहत हो सकती है।😁 आहत आत्मा से निवेदन है कि बिना क्षमा मांगे, क्षमा कर दें। और हाँ, कृपया गलतियों को सुधारकर पढ़ें, तथ्यों के सही या गलत होने की जिम्मेदारी मेरी नहीं है।

समन्वयक संजीव त्रिपाठी और व्यवस्थापक गौरव भाटिया के सस्वार्थ प्रयासों से पत्रकारपुरम चौराहे, गोमती नगर मे देना बैंक के ऊपर स्थित एक बड़े से क्लाउड रेस्तरां के ऊपरी हाल मे बैठक संपन्न हुई। इस पूरी संपत्ति के मालिक भाटिया जी हैं (देना बैंक के धन के सिवाय)। उपस्थिति पंजिका, चित्र और चलचित्र का आनंद तो आप पहले ही व्हाट्सअप पर उठा चुके हैं संजीव और अरुण के सौजन्य से। जिन्होंने न उठाया हो उठा लें। अब पाठकीय आनंद की बारी।

मेरे पहुंचने तक गौरव भाटिया, संजीव त्रिपाठी, शोभित सिंघल और अरुण मणि त्रिपाठी अड्डा जमा चुके थे। गरीबों के मेवा मूंगफली और अमीरों के पेय काफी (मद्य नहीं लिख रहा क्योंकि ये सभी वर्गों का पेय है और न ही इसकी व्यवस्था थी) का दौर चल रहा था। इसके पूर्व इन लोगों की गुफ्तगू का विषय इन्हें ही पता है क्योंकि मैं लगभग एक घंटा की देरी से पहुँचा था।

औपचारिक परिचर्चा मे पता चला कि गौरव नेता और व्यवसाई, संजीव शेयर मार्केट BSE मे प्रबंधक, शोभित विविध विधाओं के सलाहकार, अरुण इंजीनियर और मैं चिकित्सा मनोवैज्ञानिक हो गया हूँ। एक और मित्र अतुल राज वर्मा की प्रतीक्षा थी। वे भी खरामा खरामा जमीन नापते नापते कुछ देरी से पहुंच गए। पता चला लेखपाल हैं। वहाँ गोपनीय बातों का खुलासा हुआ। मीटू.... यूटू... की चर्चाओं के साथ विद्या मंदिर के आचार्यों के कारनामों की पोल भी खुली।

पत्नी, बच्चों और प्रेमिकाओं की बात चली। संजीव ने संस्मरण सुनाये कि वे कब पिटे, कब और कैसे बचे। बीच बीच मे लोग फिक्र को धुएं मे उड़ाते रहे, ये जानते बूझते हुये कि ऐसा करना जानलेवा है । अरुण और शोभित प्रेम की वेदी पर शहीद हो गये। लव मैरिज कर ली। इधर बाकियों ने भी लव मैरिज की पर अलग अलग। लव कहीं, मैरिज कहीं😎। सभी पितृत्व से ओतप्रोत हैं, सबके दो दो बच्चे हैं। इससे अधिक का किसी ने खुलासा नहीं किया😜। पत्नी पीड़ित पति थे तो पत्नी को पीड़ित करनेवाले भी। निष्कर्ष निकला पत्नी अपने ही स्वभाव से पीड़ित होती हैं। पति तो बेचारा भोला भाला होता है, लोग बहला फुसला लेते हैं...।

जीवन के उत्थान मे प्रेमिकाओं के  योगदान की बात हुई। कोई पति बना कोई कवि, मनोवैज्ञानिक, कोई गायक, कोई उपनिषद लिखने की सोच रहा। गीत गाये गये, कविता सुनाई गई, फोटोशूट हुआ, वीडियोग्राफी हुई, रिकार्डिंग हुई। शोभित ने समा बांध दिया अपने गाने से। "नाम गुम जायेगा, चेहरा यूँ बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है गर याद रहे........, चलते चलते मेरे ये गीत याद रखना, कभी अलविदा ना कहना....., कहीं करती होगी वो मेरा इंतजार..., जिस गली मे तेरा घर न हो बालमा.....।" सभी मित्रों ने अपनी क्षमतानुसार गायन मे साथ दिया। मैं अपनी टांग अड़ाता रहा, और शोभित की सुरीली लयबद्ध आवाज़ में व्यवधान डालता रहा। अतुल और अरुण ने अच्छा सुरीला साथ दिया। संजीव ने गजल सुनाई। बहुत अच्छा और सुर मे गाया। बहुत सारे और मित्रों की बात हुई। नाम नहीं लिख रहा, नहीं तो बाकी सोचेंगे कि उनसे ऐसा कौन सा अपराध छूट गया कि उनकी बात नहीं होती। और इस उम्र मे उन्हें प्रेरित करना, मुझसे न हो पायेगा।

अरुण अपने तकनीकी ज्ञान के साथ फोटोग्राफी, वीडियो ग्राफी और संप्रेषण करते रहे। गौरव व्यवस्था में लगे रहे। कुछ लोग खुले, कुछ बाकी रहे। कुछ खुलने के लिए विशेष पेय के साथ अगली मीटिंग की प्रतीक्षा और प्लानिंग के साथ, और हम सब विदा हुये। बहुत आनंद आया। सच मे मित्रों का साथ च्यवनप्राश होता है। आप भी ले लो।

Tuesday, September 15, 2015

हिंदी की क्लास और सजा

चौदह सितम्बर २०१५  को मेरे हिंदी ब्लॉग के  दो वर्ष पूरे हो गये. बीच में व्यस्तता के कारण ब्लॉग को अपडेट नहीं कर पाया।  पिछले दिनों इंटरमीडिएट में खैर इंटर कॉलेज बस्ती में साथ पढ़े एक मित्र से मोबाईल फोन पर बातचीत हुई. पुराने दिनों की याद और भी ताज़ा हो गयी। कुछ-एक छिटपुट घटनाएँ यहाँ लिख रह हूँ:
एक दिन हिंदी के गुरू जी श्री शेषनाथ पाण्डेय जी पढ़ा रहे थे।  किन्ही कारणों से हम मित्रों को आगे की लाइन वाली अपनी मनपसंद सीट बैठने के लिए नहीं मिल पायी थी, सो सभी ने निर्णय लिया की आज सबसे पीछे की लाइन में बैठा जाय.  हम सब वहीँ बैठे।  क्लास में हमें सिर्फ सिर ही सिर ही दिखाई दे रहे थे।  अध्यापक की नजरों से दूर बैठे -बैठे हमारा मन शरारती हो रहा था।  किसी ने एक चुटकुला सुनाया, सब तो अपनी हँसी पर कंट्रोल कर ले गए पर एक मित्र जोर से हँस पड़ा। गुरू जी नाराज़ हो गए पूछने लगे कि, "कौन हँसा?"  सभी चुप. उन्होंने दुबारा पूँछा कि मुझे पता है की लास्ट लाइन में कोई हँस रहा था मुझे बताओ। अगर नहीं बताओगे तो सभी को दंड मिलेगा।फिर एक एक करके सबको उठाकर पूँछने लगे कि  तुम बताओ -तुम बताओ। हर एक कहता कि गुरु जी हमें नहीं पता कि कौन हंस रहा था।  अब मेरी बारी थी।  उन्ही दिनों मैंने  सच बोलने का अभ्यास शुरू किया था।   ये मेरे लिए बड़े संकट की घडी थी कि  मैं क्या बोलूं ? सच या झूठ।  ऊपर से गुरु जी "मित्रता" नामक पाठ पढा चुके थे या पढ़ा रहे थे ठीक से याद नहीं है। मित्र का साथ दूँ या विश्वासघात करुं। मैं खड़ा हुआ और सबकी आशा के विपरीत मैंने उत्तर दिया , "गुरु जी मुझे पता है कि कौन हँस रहा था, पर मैं बताऊंगा नहीं। "   पूरी क्लास में सन्नाटा छ गया। सभी स्तब्ध।  गुरूजी भी। उन्होंने मुझसे कहा कि  यदि तुम उसका नाम नहीं बताओगे तो तुम्हें दण्ड मिलेगा।  मैं काँप गया।  गुरूजी बहुत सख़्त थे।  फिर भी मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। मुझे सजा दी गयी। कहा गया कि अपनी बेंच पर खड़े हो जाओ।  मैं खड़ा हो गया। गुरु जी ने पढाना शुरू किया।  पढ़ते समय मैं हमेशा ऑय  कांटेक्ट मेन्टेन करता था।  गुरु जी ने  मुझे देखा, मैंने गुरु जी को।  बेंच पर खड़ा होने की वजह से मैं क्लास की सामान्य परिधि से थोड़ा ऊपर था।  ऑय कांटेक्ट की वजह से गुरु जी सिर्फ  मुझे पढाने लगे और सारी  क्लास गुरु जी के आँखों से ओझल  । मेरे और गुरु जी की बीच १२० डिग्री का कोड़ बन गया जबकि बाकी सारी क्लास ९० डिग्री पर थी।  इसका आभास होते ही उन्होंने मेरी सजा माफ़ कर दी।  मुझे बैठने को कहा और सामान्य ढंग  से पढ़ाने लगे।

Friday, September 20, 2013

एम फिल, पीएचडी और समर्पण

रिनपास (Ranchi Institute of Neuropsychiatry and  Allied Sciences, http://rinpas.nic.in/), रांची में अपने एम फिल (मेडिकल और सोसल सायकालोजी) dissertation के लिए मैंने वर्ष २००० में समर्पण लिखा था।  मेरे dissertation की गाइड डॉ. मसरूर जहाँ थीं। टॉपिक था ,"Personality Characteristics of Schizophrenic Patients with and without Criminal History " .  मैडम बड़े मनोयोग से मेरी लिखी हुयी चीजें पढ़ती और correction करतीं।  Correction पर करेक्शन होते गये, और अंततः dissertation का जो फाइनल रूप मेरे सामने आया, वो उससे एकदम भिन्न था, जो मैं लिखकर देता था। उस समय मन में बड़ी कोफ़्त हुयी कि,  जिंदगी की पहली थीसिस और इसमें अपने मन से लिखा कुछ भी नहीं, या तो रिसर्चर्स की findings या मैडम का किया हुआ correction. कुल मिलकर एहसास हुआ कि सिर्फ Acknowledgement और समर्पण ही अपना हो सकता है। इसी अकुलाहट में ये समर्पण लिखा गया। उस समय अंतिम पद्य की प्रथम दो पंक्तियाँ नही लिखी गयी थीं। ये पंक्तियाँ १२ वर्षों के पश्चात अपने  PhD Thesis में मैंने जोड़ा और शीर्षक रखा 'समर्पण और आभार''समर्पण और आभार' पढ़ने के लिए या मेरी अन्य कवितायें पढ़ने के लिए लिंक https://apnisochabhivyaktiapni.blogspot.com/2013/09/blog-post_16.html पर जाया जा सकता है।  पीएचडी थीसिस मैने Dr. S. C. Tiwari Sir की guidance में वृद्धावस्था मानसिक स्वास्थ्य विभाग , किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय (http://kgmu.org/) से किया । टॉपिक है ,"A Clinical Psychological Study of Cognitive Functioning as a Determinant of Quality of Life amongst Urban Elderlies ".   मैं  अपने दोनों गुरूजनों का कृतज्ञ हूँ जिन्होंने मुझे इस लायक बनाया कि पहले मैं एक चिकित्सा मनोवैज्ञानिक बना और फिर चिकित्सा मनोविज्ञान में अध्यापक (http://kgmu.org/department_details.php?dept_type=2&dept_id=14&page_type=faculty_and_staff)। गुरु की वंदना में  ये श्लोक जगप्रसिद्ध है मैं अपने गुरुजनों की वंदना करता हूँ -
With Dr. S. C. Tiwari
गुरुर ब्रम्हा गुरुर विष्णु गुरुर देव महेश्वरः ,
गुरुर साक्षात् परमब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।       
With Dr. Masroor Jahan 
                                                             
The most awaited moment of my life......
Doctor of Philosophy (Ph.D.) Degree Awarded on September 29, 2013, in the 9th Convocation of
King George;s Medical University, Lucknow, India


Tuesday, September 17, 2013

मनोविज्ञान से परिचय

बात पिछले ब्लॉग http://rakeshuvaach.blogspot.in/2013/09/blog-post.html  से शुरू करते  हैं।  मैंने लिखा था १४-१५ वर्ष की आयु में मुझे विरह वेदना हुयी थी और मेरे मुह से कुछ शब्द निकले थे, "जिसके लिए मैंने अपनों को कुछ नहीं समझा , उसी ने आज मुझे मेरी औकात बताई।   ये आयु विरह वेदना के लिए कम है, ऐसा लोगों का मानना है।  पर इसकी शुरुआत तो इसके पहले ही हो चुकी थी। नवीं -दसवीं क्लास में। ये घटना दसवीं की है। कुछ वक्त सुधरने में लगा और फिर कुछ दिन के बाद अपने आपको धिक्कारते हुए एक शायरी लिखी - वालिद का नाम रोशन करने की फिक्र कर, दाग दामन में गर लगा के जिया भी तो क्या जिया। जीवन की पटरी लाइन पर आयी. मेलजोल फिर से बढ़ा. पुस्तकों का आदान -प्रदान हुआ और पहली बार मेरा परिचय मनोविज्ञान विषय से हुआ।   हुआ यूँ, कि, जिस पुस्तक में मुझे पत्र (आप प्रेम पत्र समझ सकते हैं) मिला वो मनोविज्ञान की थी।  मैंने पूरी पुस्तक पढ़ डाला, यद्यपि की मैं बायलोजी का स्टूडेंट   था।  नोट्स भी बना लिए। फिर कुछ दिनों के पश्चात मेरे एक मित्र की वजह से गलतफहमी इतनी बढ़ी कि इस सम्बन्ध का पटाक्षेप हो गया।  मुझे आज भी इस बात का दुःख है कि, वो गलतफहमी आज तक बनी हुयी है। दिल में अब भी एक टीस है।  इस घटना के १०-१२  वर्षो के उपरांत  आज मैं एक चिकित्सा मनोवैज्ञानिक (Clinical Psychologist) हूँ।

मेरा चिकित्सा मनोवैज्ञानिक बनना क्या महज एक इत्तफाक था ?
या फिर अवचेतन मन में उपस्थित इस वेदना को  compensate करने के लिये मेरी सारी ऊर्जा इस ओर अग्रसर हुयी ?
क्या उपर्युक्त घटना का मेरे जीवन पर इतना व्यापक प्रभाव पड़ा?
या फिर ये कोई सुनियोजित प्लान था अपने कैरियर को शेप देने का?
इस विषय पर आपका क्या सोचना है?

आगे के   पृष्ठों   में हम इसका विश्लेषण करेंगे।


वो शपथ जिसने मेरी ज़िन्दगी बदल दी :